का वर्णन क्रमशः
करूंगी
मैंने प्रथम संस्कार गर्भ धान एवं द्वितीय संस्कार पुंसवन संस्कार का वर्ण पिछले माह में किया है।
इस माह में तृतिय संस्कार का वर्णन करने का प्रयत्न करने की कोशिश कर रही हूँ आशा है। आप सभी को पसंद आए तो हम अब तृतिय संस्कार की ओर चलते है। तृतिय कौन सी संस्कार है। इस संस्कार का महत्व क्या है। इसे जानने का प्रयास करते है।
तृतिय संस्कार वह है। जो हम सबके लिए उपयुक्त होता अतः हम कह सकते की जब गर्भ में पल रहे शिशु का मस्तिष्क विकास होता है। उसी समय यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को हम सीमन्तोन्नयन संस्कार कहते है।
अतः सीमन्तो का अर्थ मस्तिष्क है। और उत्पतयन का अ र्थ विकास होता है।
दोनो से मिलकर सीमन्तोन्नयन बना है।
यह संस्कार गर्भ में पल रहे शिशु का पूर्ण रूपसे शारीरिक विकास हो जाता है। किन्तु बौद्विक रूप से . मस्तिष्क का विकास नही हो पाता इसलिए बौद्धिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिसे हम गोद भराई रस्म कहते है। और हमारे छतीसगढ़ मैथिली भाषा में सधौरी कहते है। इसे ही संस्कृत भाषा में सीमन्तोन यन संस्कार कहते है।
इस संस्कार के अन्तर गर्त पति अपने पत्नी के सिर पर सुगन्धित तेल लगाते है। कंधी करते है। सुन्दर जुड़ा बनाते है। इस समय सोलह शृंगार पति के द्वारा ही किया जाता है। क्योंकि इस समय पत्नी किसी भी कार्य को करने के लिए असाहाय महसूस करती है। यही कारण है की पति यह सब अपने पत्नी के लिए किया करते है।
गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए पूजा पाठ अनुष्ठान हवन आदि उनकी लम्बी उम्र , स्वास्थ एवं दीर्घायु गुणी हो के लिए करते है।
गर्भ मे पल रहे शिशु का प्रभाव उनके माता - पिता की दिनचर्या का प्रभाव शिशु के ऊपर पड़ता है। इसी समय पर गर्भ में पल रहे बच्चे की मस्तिषक कोशिकाओं का निर्मार्ण आरम्भ होता है। सुश्रुत शारिरिक स्थान पर यह उल्लेख है।
पांचवें महीने में मन जागृत होता है।
छठवें में बुद्धि .
सातवें महीने में . अंगों का निर्माण होता है।
आठवें महीने में बच्चे का ओस शरीर का आठ तत्व में यह एक तत्व है। जो निर्माण स्थिर रूप में नहीं होता सुश्रुत के अनुसार पांचवे महीने में पल रहे गर्भ के अंदर शिशु का निर्माण चौथे महीने में अधिक होता है। यही कारण है। की इस समय में सीमन्तोन्नयन संस्कार का चयन किया जाता है। . इस माह में बच्चे की मस्तिषकों में बौद्धिक विकास की पहली उत्पति होती है। उनका पता लगाया जाता है। इस महा में शिशु का शरीर , मस्तिष्क ,हृदय का विकास होता है। या कहे हम तैयार होता है। इसलिए इसे जुड़वा हृदय कहते है। क्योंकि दो हृदय एक साथ कार्य करता है। ऐसी स्थिती में माता - पिता दोनों का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। इसलिए कहा जाता है। की आठवें महीने की महत्वपूर्ण कहा जाता है। इस महा में गर्भवती महिला को विशेष ध्यान देने की जरूरत पड़ती है। अधिक परिश्रम करना , सफर में जाना , दूर यात्रा करना , उल्टा . सीधा बैठना कुछ भी खाना पीना अधिक जागरण करना , अधिक क्रोध करना शिशु के लिए घातक होता है।इन्ही कारणो की वजह से कभी कभी आठवें महीने में बच्चे का जन्म हो जाता है। ऐसे बच्चे का बचना मुश्किल हो जाता है।
गर्भवती स्त्री अपने मन में जैसे छवि बनाती है। वैसे ही शिशु का जन्म होता है। यही कारण है। की बड़े बुर्जुग कहते है। अच्छा सोचो अच्छा विचार बनाओं पूजा पाठ हवन अनुष्ठान करों . भगवान का फोटो रखों प्रातः उठकर सबसे पहले भगवान का फोटों देखों उनका मन ही मन स्मरण करो भागवत पुराण रामायण ज्ञान वर्धक पुस्तक पढ़ों तो बच्चा ज्ञानी होता है। गर्भ वती माता को जो चींज प्रिय नही होती जो वस्तु पसंद नही होता तो वही गुण बच्चे में भी हो जाता है।
इस संस्कार में केश उठाने की क्रिया होती है। जिसे हम आम भाषा में सिर घुलाना या बेसन डालना कहते है।
यह कार्य पंडित जी आचार्य जी से शुभ मुहूर्त दिखा कर किया जाता है। अमंगल कारी से बचने के लिए
जन समान्य लोगों की हृदय में आस्था था कि की गर्भ धारण वाली महिलाओं को अमंगलकारी शक्तियां दुखित कर देती है। तो इस समय विशेष संस्कारों की आवश्य कता होती है। इन बातों का उल्लेख ग्रह सूत्र में किया गया है।की राक्षसों के द्वारा गर्भवती स्त्रीयों के गर्भ में प्रथम शिशु पल रहा होता है। तो प्रथम शिशु को खाने के लिए आती है। ऐसे विनाश कारी से बचने के लिए लक्ष्मी जी एवं विष्णु जी की पूजन करनी चाहिए इन अमंगल कारी प्रवृतियां से बचने के लिए इसी कारणों से यह संस्कार का विधान किया गया है। इस संस्कार का यह भी अभिप्राय है। की इस समय बौद्धिक मास्तिष्क का सम्पूर्ण विकास हो सके और माता को एश्वर्य की प्राप्ती हो .
साथ साथ गर्म वती स्त्री को प्रसन्न रखना
सुश्रुत संहिता में यह भी निर्देश दिया गया है।
गर्भवती महिलाओं को यह नही करना चाहिए जैसे
मिथुन ,श्रम दिन में सोना . सवारी यात्रा विशेष कर आठवा एवं नौवा महीना में वर्णित है। जहा आप है। वही ही रहें
रेचन - दस्त लगना रकत . स्रपण
मल मूत्र असमय लगना आदि से बचना चाहिए यह सभी बातों से गर्भवती महिलाओं को अवगत कराया जाना चाहिए की हर पल शिशु की रक्षा होनी चाहिए एवं रक्षा करनी चाहिए अपनी मन मानी नही करनी चाहिए विशेषज्ञ एवं बुर्जगों से परामर्श लेना चाहिए इस माह में परिवारों के साथ रहना उचित होगा तृतिय संस्कार में इन सभी बातों का उल्लेख होता है।
आशा ठाकुर
पाटन रोड अम्लेश्वर
सोलह संस्कारों
का वर्णन क्रमशः
करूंगी
मैंने प्रथम संस्कार गर्भ धान एवं द्वितीय संस्कार पुंसवन संस्कार का वर्ण पिछले माह में किया है।
इस माह में तृतिय संस्कार का वर्णन करने का प्रयत्न करने की कोशिश कर रही हूँ आशा है। आप सभी को पसंद आए तो हम अब तृतिय संस्कार की ओर चलते है। तृतिय कौन सी संस्कार है। इस संस्कार का महत्व क्या है। इसे जानने का प्रयास करते है।
तृतिय संस्कार वह है। जो हम सबके लिए उपयुक्त होता अतः हम कह सकते की जब गर्भ में पल रहे शिशु का मस्तिष्क विकास होता है। उसी समय यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को हम सीमन्तोन्नयन संस्कार कहते है।
अतः सीमन्तो का अर्थ मस्तिष्क है। और उत्पतयन का अ र्थ विकास होता है।
दोनो से मिलकर सीमन्तोन्नयन बना है।
यह संस्कार गर्भ में पल रहे शिशु का पूर्ण रूपसे शारीरिक विकास हो जाता है। किन्तु बौद्विक रूप से . मस्तिष्क का विकास नही हो पाता इसलिए बौद्धिक विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिसे हम गोद भराई रस्म कहते है। और हमारे छतीसगढ़ मैथिली भाषा में सधौरी कहते है। इसे ही संस्कृत भाषा में सीमन्तोन यन संस्कार कहते है।
इस संस्कार के अन्तर गर्त पति अपने पत्नी के सिर पर सुगन्धित तेल लगाते है। कंधी करते है। सुन्दर जुड़ा बनाते है। इस समय सोलह शृंगार पति के द्वारा ही किया जाता है। क्योंकि इस समय पत्नी किसी भी कार्य को करने के लिए असाहाय महसूस करती है। यही कारण है की पति यह सब अपने पत्नी के लिए किया करते है।
गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए पूजा पाठ अनुष्ठान हवन आदि उनकी लम्बी उम्र , स्वास्थ एवं दीर्घायु गुणी हो के लिए करते है।
गर्भ मे पल रहे शिशु का प्रभाव उनके माता - पिता की दिनचर्या का प्रभाव शिशु के ऊपर पड़ता है। इसी समय पर गर्भ में पल रहे बच्चे की मस्तिषक कोशिकाओं का निर्मार्ण आरम्भ होता है। सुश्रुत शारिरिक स्थान पर यह उल्लेख है।
पांचवें महीने में मन जागृत होता है।
छठवें में बुद्धि .
सातवें महीने में . अंगों का निर्माण होता है।
आठवें महीने में बच्चे का ओस शरीर का आठ तत्व में यह एक तत्व है। जो निर्माण स्थिर रूप में नहीं होता सुश्रुत के अनुसार पांचवे महीने में पल रहे गर्भ के अंदर शिशु का निर्माण चौथे महीने में अधिक होता है। यही कारण है। की इस समय में सीमन्तोन्नयन संस्कार का चयन किया जाता है। . इस माह में बच्चे की मस्तिषकों में बौद्धिक विकास की पहली उत्पति होती है। उनका पता लगाया जाता है। इस महा में शिशु का शरीर , मस्तिष्क ,हृदय का विकास होता है। या कहे हम तैयार होता है। इसलिए इसे जुड़वा हृदय कहते है। क्योंकि दो हृदय एक साथ कार्य करता है। ऐसी स्थिती में माता - पिता दोनों का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। इसलिए कहा जाता है। की आठवें महीने की महत्वपूर्ण कहा जाता है। इस महा में गर्भवती महिला को विशेष ध्यान देने की जरूरत पड़ती है। अधिक परिश्रम करना , सफर में जाना , दूर यात्रा करना , उल्टा . सीधा बैठना कुछ भी खाना पीना अधिक जागरण करना , अधिक क्रोध करना शिशु के लिए घातक होता है।इन्ही कारणो की वजह से कभी कभी आठवें महीने में बच्चे का जन्म हो जाता है। ऐसे बच्चे का बचना मुश्किल हो जाता है।
गर्भवती स्त्री अपने मन में जैसे छवि बनाती है। वैसे ही शिशु का जन्म होता है। यही कारण है। की बड़े बुर्जुग कहते है। अच्छा सोचो अच्छा विचार बनाओं पूजा पाठ हवन अनुष्ठान करों . भगवान का फोटो रखों प्रातः उठकर सबसे पहले भगवान का फोटों देखों उनका मन ही मन स्मरण करो भागवत पुराण रामायण ज्ञान वर्धक पुस्तक पढ़ों तो बच्चा ज्ञानी होता है। गर्भ वती माता को जो चींज प्रिय नही होती जो वस्तु पसंद नही होता तो वही गुण बच्चे में भी हो जाता है।
इस संस्कार में केश उठाने की क्रिया होती है। जिसे हम आम भाषा में सिर घुलाना या बेसन डालना कहते है।
यह कार्य पंडित जी आचार्य जी से शुभ मुहूर्त दिखा कर किया जाता है। अमंगल कारी से बचने के लिए
जन समान्य लोगों की हृदय में आस्था था कि की गर्भ धारण वाली महिलाओं को अमंगलकारी शक्तियां दुखित कर देती है। तो इस समय विशेष संस्कारों की आवश्य कता होती है। इन बातों का उल्लेख ग्रह सूत्र में किया गया है।की राक्षसों के द्वारा गर्भवती स्त्रीयों के गर्भ में प्रथम शिशु पल रहा होता है। तो प्रथम शिशु को खाने के लिए आती है। ऐसे विनाश कारी से बचने के लिए लक्ष्मी जी एवं विष्णु जी की पूजन करनी चाहिए इन अमंगल कारी प्रवृतियां से बचने के लिए इसी कारणों से यह संस्कार का विधान किया गया है। इस संस्कार का यह भी अभिप्राय है। की इस समय बौद्धिक मास्तिष्क का सम्पूर्ण विकास हो सके और माता को एश्वर्य की प्राप्ती हो .
साथ साथ गर्म वती स्त्री को प्रसन्न रखना
सुश्रुत संहिता में यह भी निर्देश दिया गया है।
गर्भवती महिलाओं को यह नही करना चाहिए जैसे
मिथुन ,श्रम दिन में सोना . सवारी यात्रा विशेष कर आठवा एवं नौवा महीना में वर्णित है। जहा आप है। वही ही रहें
रेचन - दस्त लगना रकत . स्रपण
मल मूत्र असमय लगना आदि से बचना चाहिए यह सभी बातों से गर्भवती महिलाओं को ज्ञात होनी चाहिए की हर पल शिशु की रक्षा होनी चाहिए एवं रक्षा करनी चाहिए अपनी मन मानी नही करनी चाहिए विशेषज्ञ एवं बुर्जगों से परामर्श लेनी चाहिए इस माह में परिवारों के साथ रहना उचित होगा तृतिय संस्कार में इन सभी बातों का उल्लेख होता है।
आशा ठाकुर
पाटन रोड अम्लेश्वर
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