एक दस्तावेज भविष्य के नाम - आप सभी को सादर अभिवादन करते हुए अपने मन मे उठे विचार व्यक्त करना चाहती हूं। आशा है आपलोगों की प्रतिक्रिया मिलेगी। सत्तर, अस्सी के दशक में अभी की तरह सशक्त संचार माध्यमों का अभाव सा था। कभी कभी आवश्यकता बड़े सुदृढ नियम बना लेती है। हमे पता भी नहीं चलता ऐसी ही एक परंपरा सी थी। इलाहाबाद जाना मतलब काली मछली का झंडा गोपाल पंडा जी के पास जरूरजाते थे और सभी नए बच्चों के नाम वंशवृक्ष में अंकित करवाते थे यह बड़ा महत्वपूर्ण काम होता था। जो आज भी बदस्तूर चला आ रहा है। हमे हमारी जड़ों से जोड़ती व्यवस्था है ये। मैने अपने किशोरावस्था में पहली बार उस वक्त इस विषय पर ध्यान दिया जब हमारे रिश्ते में कहीं शोक हुआ था। हमेशा की तरह तब भी कुछ बच्चों के नाम गए थे। हमारे घर से भी भतीजे का नाम लिखवाया गया था। वह उम्र में मुझसे बहुत छोटा नहीं है। जाहिर है हम बुआ भतीजे से ज्यादा भाई बहन की तरह रहते थे। खैर वंशवृक्ष बनकर आई पिताजी के साथ सबलोग बैठ गए अपना अपना नाम देखने चार भाइयों की अकेली ...